शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

भूमिका -

          जी हाँ ! सबसे पहले तो आप सभी महानुभावों से यह निवेदन अत्यंत विनम्रता पूर्वक करना चाहता हूँ कि, मैं कोई साहित्यकार या लेखक होने की ग़लतफहमी पाल कर आपके सम्मुख उपस्थित नहीं हुआ हूँ । आप इसे मेरी औपचारिक विनम्रता न समझें, क्योंकि बाज़ बड़े लेखक भी कई बार ऐसी विनम्रता के साथ अपने विचार प्रकट करते हैं । यह उनका बडप्पन है कि वे स्थापित लेखक होकर भी ऐसी विनम्रता रखते हैं । किन्तु मेरा यह निवेदन पूर्ण रूप से सत्य है कि, मैं साहित्यकार होना तो दूर - एक सामान्य समझ वाला पाठक भी नहीं हूँ । कई बार लिखा हुआ मेरे सर पर से गुजर जाता है । कविताओं के साथ तो यह नब्बे प्रतिशत से भी अधिक बार हो जाता है, किन्तु निबन्धों की समझ भी मेरी अच्छी नहीं है । हाँ, कहानी और उपन्यासों की थोड़ी-बहुत समझ मुझमे है ! किन्तु वह भी केवल पढ़कर आनन्द लेने तक ही सीमित है । इन पर बात करने पर केवल इतना ही कह पाता हूँ कि, अच्छी लगी या मज़ा आ गया ।इनकी शास्त्रीयता पर कुछ कहना हो या इनकी विवेचना करना हो तो , मौन ही रह जाना होता है - 'गूँगे का गुड़' इससे अधिक कुछ नहीं !!!
           फिर मैं यहाँ क्या लिखने जा रहा हूँ ! 'आत्म कथा', ' डायरी',  'उपन्यास' ! नहीं, बिलकुल नहीं ! मुझमे इतनी योग्यता नहीं है कि मैं यह सब कुछ लिख सकूं ! फिर मैं क्या लिख रहा हूँ !! अभी तक के जीवन में, बहुत कुछ ऐसा घटा है , बहुत लोग ऐसे हैं जो कभी विस्मृत नहीं हो पाते हैं - कुछ बुरे भी कुछ बेहद अच्छे भी ! उन सभी पलों, घटनाओं और व्यक्तियों को याद कर, एक स्थान पर उनको प्रतिष्ठित करने का मेरा यह प्रयास है । कोशिश करूँगा कि सब कुछ एक सिलसिले में हो ।
           तो यह है - बिखरे-बिखरे सन्दर्भों को एक तरतीब देने की कोशिश !

मैं साहित्यकार नही हूँ ! (3)

पिछली बार मेरे द्वारा निवेदन किया गया था कि, किस तरह संयोगवश ही मुझसे एक कहानी नुमा कोई बात लिखा गई थी, और  कसबे के अखबार पढने वाले मित्रो में इसकी तारीफ़ भी हुई थी ।मित्रों और अन्य मिलने वाले महानुभावों द्वारा लगातार आग्रह किया जा रहा था कि, और कुछ नया लिखूँ ।

मगर मैं अपनी स्थिति से खूब परिचित था । मुझे अपने लेखक होने का जरा सा भी म्गालता नहीं था । किन्तु लोगों में अपनी थोड़ी सी पहचान ( लेखक की - फिर चाहे वह झूठी और संयोगवश ही क्यों न बनी हो ) बन जाने के कारण , मन ही मन बड़ा गदगद था । उनके आग्रह और अपनी पहचान बनाए रखने के लिए मुझे सतत रूप से कुछ न कुछ बेहतर लिखते रहना चाहिए । पर सवाल अपनी जगह पर स्थिर था कि, आखिर क्या और कैसे लिखूं ? घर के और स्कूल के सारे कामों को तिलांजलि देकर, घंटों टेबल पर बैठकर सोचा करता कि क्या लिखूँ ? कभी मन करता कि कविता लिखूँ ...कविता छोटी होती है, और जल्दी लिखा जाती है ... मगर दो-पंक्तियाँ लिखने के बाद, मस्तिष्क में सन्नाटा छा जाता ! एकदम शून्य ... आगे कुछ लिखने में असफल रहकर वे कागज़ ही फाड़ देता ! फिर सोचता ... कविता अपने बस की बात नहीं है...छोड़ो इसे ... फिर कहानी के बारे में विचार करता ... पर हमेशा उपसंहार में उलझ जाता ... कहानी भी मन की मन में रह जाती ।
! कुछ न बनते देखकर , खीज उत्पन्न होती, और सारा गुस्सा घर वालों पर निकलता ! 

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

मैं साहित्यकार नहीं हूँ ! (2)

उस दिन के बाद मैंने अपने मित्रों,सहपाठियों,शिक्षकों और अन्य सभी पहचान वालों की नजरों में अपने प्रति एक अलग सा भाव हमेशा देखा । जैसे मैं एक दिन में कोई दूसरा व्यक्ति हो गया होऊँ ! कई लोग मुझसे पूछते- "और भाई अब नया क्या लिखा है ?" ... "कुछ सुनाओ यार !" क्या सुनाता ! कुछ लिखा हो तब तो सुनाऊँ ना !( लेकिन उनसे यह तो नहीं कह सकता था कि, कुछ सूझता ही नहीं !लिखूं क्या खाक़ ) सो बड़ा गंभीर होकर कहता -" हाँ, चल रहा है काम ! दो चार लम्बी कविताएँ हैं और एक कहानी पर काम कर रहा हूँ । जल्दी ही कम्प्लीट हो जाएगी !!" बाद में सोचता कहाँ से कम्प्लीट हो जाएंगी । जहाँ मैं पानी बता रहा हूँ, वहाँ दूर दूर तक कीचड़ के निशान भी नहीं हैं ! मगर करता क्या ? अपने हिसाब से तो मैं, उनकी नजरों में 'तुलसीदास जी' जैसा महाकवि था । बहुत चिंता में था ! मुंह तो फाड़ दिया था कि दो चार कविताएँ और एक कहानी ...! पांच- सात दिन इसी दुश्चिंता में गुज़रे किन्तु कुछ हो नहीं पा रहा था !!

  किन्तु वह कहावत है ना - "जिसको राम रक्खे, उसको कौन चक्खे !" आखिर मेरा मुहल्ला ही मेरा तारनहार बना । हुआ यूं कि, पडौस के एक चाचा बड़ी मुश्किल से अपनी लम्बी चौड़ी 'गृहस्ती' को अपने एक टूटे ताँगे और मरियल घोड़े के सहारे बड़ी मुश्किल से चला पा रहे थे ।पैसों की तंगी की वजह से रोज़ाना ही उनके यहाँ मार-कुटाई और भीषण गाली-गलौज़ हुआ करता था । उस दिन कुछ अधिक ही महाभारत हो गई थी । घर में खाने को शायद कम था या नहीं भी रहा होगा ! असमर्थ बाप का समर्थ क्रोध लाठी बनकर बच्चों के पैरों पर टूटा ।घर में एक भी व्यक्ति इस क्रोध से नहीं बचा ! सभी भूखे ही सो गए । मार के दर्द के कारण 'भूख' की पीड़ा भाग गई ।

मैं भारी क़दमों और दुखी मन से अपने कवेलूपोश कमरे में आ कर टेबल पर बैठ गया ! उठा तो मेरे हाथ में एक कहानी थी - 'सवाब' जो ईद के मौके पर कहानी का नायक परिवार नियोजन का आपरेशन करवा कर पाता है । सच कहूँ तो यह कहानी मुझसे कोई अदृश्य शक्ति ही लिखवा गई ! 'सवाब' मित्रों को अपेक्षा से भी कम कम समय में, जिले के प्रमुख अख़बार में पढ़ने को मिल गई । फिर तो मैं कवि के साथ साथ ' कहानीकार' के रूप में भी अपने छोटे से कस्बे में स्थापित होने लगा । जो कुछ भी लिखा गया था, वह मात्र संयोग था, और थी एक विशेष मनोदशा की स्थिति । परन्तु मित्र-लोगों की अपेक्षाएँ भी बढ़ रही थीं, और मेरे भीतर का अहंकार भी खूब पुष्ट हो रहा था !

इन्हीं दिनों मेरे पड़ोस में एक बेंककर्मी रहने आए । वे एक मघुर गीतकार थे । वे न तो कवि सम्मेलनों में जाते थे और न ही अपने गीत कहीं प्रकाशन हेतु भेजते थे। हाँ मित्र मंडली में वे खूब झूम कर गाया करते थे ! पास के शहर के ही रहने वाले थे और वहाँ की एक साहित्यिक संस्था से जुड़े हुए थे ।एक दिन उन्होंने बताया कि,  उनकी संस्था सहकारिता के आधार पर एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित करने जा रही है । हर सहभागी को पांच पांच रचनाओं के साथ 100 ₹ जमा करने हैं । प्रकाशित होने पर  हर रचनाकार को 100 ₹ मूल्य की 10 प्रतियाँ ग़ज़ल संग्रह की प्रदान की जाएगी ।उन्होंने मुझसे भी सहभागिता हेतु आग्रह किया । मेरे पास न तो 'ग़जलें' थीं और न देने को रुपए । मैं चुप लगा गया । किन्तु 'मौन स्विकृतिस्य लक्षणम्' के अनुसार उन्होंने मेरी चुप्पी को स्वीकृति समझ लिया और अपनी संस्था को सूचित्त कर दिया । इसके बाद उन्होंने बजाहिर तो रचनाओं के लिए ( तथा बेज़ाहिर रुपयों के लिए ) तकादा शुरू क्र दिया । 'ग़ज़ल' क्या चीज होती है यह न तो मैं तब जानता था और न ही अब जानता हूँ । लेकिन 'छपास' की प्यास ने मुझसे - 'खबर हो गई',  'नजर हो गई',  ' सहर हो गई' ,  'बसर हो गई' नुमा दस पंक्तियों की ग़ज़ल (?) लिखवा ही लो । पैसे न तो उन्होंने खुलकर माँगे और न मैं दे पाया । बहरहाल, वह संग्रह 'नुपुर के स्वर' के नाम से प्रकाशित हुआ । मुझे उसकी एक प्रति कृपापूर्वक मिल गई । इस तरह आपका यह मित्र 'ग़ज़ल' भी आखिर हो ही गया ! (शेष अगली बार)......     ....... ओम गिल.

मैं साहित्यकार नहीं हूँ !

  • मैं साहित्यकार नहीं हूँ !                                                  

मैं साहित्यकार नहीं हूँ !

जी हाँ, मित्रो ! मैं साहित्यकार होना तो बहुत दूर, एक सामान्य पाठक की समझ भी नहीं रखता हूँ ! भुत से ख्यात लेखक ' विनम्रतावश ' ऐसा लिखते हैं, यह उनका बड़प्पन है किन्तु मेरे मामले में ऐसा बिलकुल भी नहीं है ।मुझे लिखना नहीं आता ।कई बार एक चार पंक्तियों के पत्र या आवेदन पत्र लिखने में काफी सारा समय और कागज़ बर्बाद कर देने पर भी कुछ ढंग से नहीं लिखा जाता है ।बीच-बीच में - 'मेरा मतलब है' या 'यानि' जैसे अतिरिक्त शब्दों की सहायता से अपना मन्तव्य स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ ।

फिर आप कहेंगे कि भाई जब तुम्हें लखना ही नहीं आता है, तो क्या किसी डाक्टर की सलाह से ब्लॉग पोस्ट कर रहे हो । आपका कहना बिलकुल ही उचित है । फिर यहाँ ब्लॉग पर क्यों हूँ मैं ?

दरअसल, ग़लती इसमें मेरी ही है ! हुआ यूं कि जब मैं सातवीं कक्षा में था तब मेरे मुहल्ले के एक सट्टेबाज़ पंडित जी से मेरी कुछ अनबन हो गई ।सो चिढ़कर, बदला लेने के लिए मैंने उनके सम्मान में एक हास्य-व्यंग्य से भरी आठ-दस पंक्तियों की एक तुकबन्दी लिख डाली, और उसे स्थानीय समाचार-पत्र में प्रकाशनार्थ भेज दी ।

दुसरे दिन, घर के बाहर मचे क़ुहराम ने मुझे नींद से जगाया । तमाशा देखने की ग़रज से बाहर घर से बाहर निकला तो खुद तमाशा बन गया ! बाहर पंडित जी दुर्वासा बने क्रोध से जोर जोर से मेरी सात अगली और सात ही पिछली पीढियों के अनंत काल तक नरक-निवास की योजना बना रहे थे ।शोरगुल सुनकर  पिताजी भी बाहर आ गए थे ।उन्होंने बड़ी शांति से मुस्कराते हुए पंडित जी का हाथ पकड़ा, और धीरे से बोले -" पंडित जी ! लड्डू-बाफले खाए अर्सा हो गया है, मैं आपके पास ही आ रहा था , अच्छा हुआ आपके दर्शन घर बैठे हो गए । हाँ, तो जरा बता दीजिए कि दाल में क्या क्या मसाला पड़ेगा ?"

सुनते ही पंडित जी पर सवार 'दुर्वासा जी' का भूत उतर गया । पंडित जी एकदम खुश हो गए । बोले -" मसालों का क्या है ? हाथ-हाथ की करामात होती है ।मैं ऐसी दाल बनाता हूँ कि लोग दाल के साथ अपनी अंगुलियाँ भी चट कर जाएँ । और बाफले ! बाफले तो ऐसे बनाता हूँ जैसे मक्खन के बने हों !! आस-पास के सौ गाँवों में भी कोई मेरे जैसी रसोई बना दे तो मैं, उसका गुलाम बन जाऊँ !!! वो पिछले साल नन्दू के छोरे के जडूल्ये में ...."

"अरे हाँ, पंडित जी ! मुझे मालुम है ... आप ही बनाइएगा ... मैं सामग्री लाता हूँ ...कह कर पिताजी घर में चले गए । सारा मुहल्ला जानता था कि, पंडित जी कितना भी गुस्सा हों, लड्डू और दाल- बाफले की जरा सी आंच से 'मक्खन' जैसे पिघल जाते हैं ।

इसके बाद तो सारे क़स्बे में उस 'कविता' की चर्चा रही कई दिनों तक । और आपका यह अकिंचन मित्र रातों-रात कवि के रूप में ,सारे कस्बे में पहचाने जाने लगा । लेकिन, उसके बाद घंटों पेन हाथ में पकड़ बैठने के बाद कभी दो पंक्तियाँ भी ढंग की नहीं सूझीं !!