बुधवार, 16 अप्रैल 2014

मैं साहित्यकार नहीं हूँ ! (2)

उस दिन के बाद मैंने अपने मित्रों,सहपाठियों,शिक्षकों और अन्य सभी पहचान वालों की नजरों में अपने प्रति एक अलग सा भाव हमेशा देखा । जैसे मैं एक दिन में कोई दूसरा व्यक्ति हो गया होऊँ ! कई लोग मुझसे पूछते- "और भाई अब नया क्या लिखा है ?" ... "कुछ सुनाओ यार !" क्या सुनाता ! कुछ लिखा हो तब तो सुनाऊँ ना !( लेकिन उनसे यह तो नहीं कह सकता था कि, कुछ सूझता ही नहीं !लिखूं क्या खाक़ ) सो बड़ा गंभीर होकर कहता -" हाँ, चल रहा है काम ! दो चार लम्बी कविताएँ हैं और एक कहानी पर काम कर रहा हूँ । जल्दी ही कम्प्लीट हो जाएगी !!" बाद में सोचता कहाँ से कम्प्लीट हो जाएंगी । जहाँ मैं पानी बता रहा हूँ, वहाँ दूर दूर तक कीचड़ के निशान भी नहीं हैं ! मगर करता क्या ? अपने हिसाब से तो मैं, उनकी नजरों में 'तुलसीदास जी' जैसा महाकवि था । बहुत चिंता में था ! मुंह तो फाड़ दिया था कि दो चार कविताएँ और एक कहानी ...! पांच- सात दिन इसी दुश्चिंता में गुज़रे किन्तु कुछ हो नहीं पा रहा था !!

  किन्तु वह कहावत है ना - "जिसको राम रक्खे, उसको कौन चक्खे !" आखिर मेरा मुहल्ला ही मेरा तारनहार बना । हुआ यूं कि, पडौस के एक चाचा बड़ी मुश्किल से अपनी लम्बी चौड़ी 'गृहस्ती' को अपने एक टूटे ताँगे और मरियल घोड़े के सहारे बड़ी मुश्किल से चला पा रहे थे ।पैसों की तंगी की वजह से रोज़ाना ही उनके यहाँ मार-कुटाई और भीषण गाली-गलौज़ हुआ करता था । उस दिन कुछ अधिक ही महाभारत हो गई थी । घर में खाने को शायद कम था या नहीं भी रहा होगा ! असमर्थ बाप का समर्थ क्रोध लाठी बनकर बच्चों के पैरों पर टूटा ।घर में एक भी व्यक्ति इस क्रोध से नहीं बचा ! सभी भूखे ही सो गए । मार के दर्द के कारण 'भूख' की पीड़ा भाग गई ।

मैं भारी क़दमों और दुखी मन से अपने कवेलूपोश कमरे में आ कर टेबल पर बैठ गया ! उठा तो मेरे हाथ में एक कहानी थी - 'सवाब' जो ईद के मौके पर कहानी का नायक परिवार नियोजन का आपरेशन करवा कर पाता है । सच कहूँ तो यह कहानी मुझसे कोई अदृश्य शक्ति ही लिखवा गई ! 'सवाब' मित्रों को अपेक्षा से भी कम कम समय में, जिले के प्रमुख अख़बार में पढ़ने को मिल गई । फिर तो मैं कवि के साथ साथ ' कहानीकार' के रूप में भी अपने छोटे से कस्बे में स्थापित होने लगा । जो कुछ भी लिखा गया था, वह मात्र संयोग था, और थी एक विशेष मनोदशा की स्थिति । परन्तु मित्र-लोगों की अपेक्षाएँ भी बढ़ रही थीं, और मेरे भीतर का अहंकार भी खूब पुष्ट हो रहा था !

इन्हीं दिनों मेरे पड़ोस में एक बेंककर्मी रहने आए । वे एक मघुर गीतकार थे । वे न तो कवि सम्मेलनों में जाते थे और न ही अपने गीत कहीं प्रकाशन हेतु भेजते थे। हाँ मित्र मंडली में वे खूब झूम कर गाया करते थे ! पास के शहर के ही रहने वाले थे और वहाँ की एक साहित्यिक संस्था से जुड़े हुए थे ।एक दिन उन्होंने बताया कि,  उनकी संस्था सहकारिता के आधार पर एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित करने जा रही है । हर सहभागी को पांच पांच रचनाओं के साथ 100 ₹ जमा करने हैं । प्रकाशित होने पर  हर रचनाकार को 100 ₹ मूल्य की 10 प्रतियाँ ग़ज़ल संग्रह की प्रदान की जाएगी ।उन्होंने मुझसे भी सहभागिता हेतु आग्रह किया । मेरे पास न तो 'ग़जलें' थीं और न देने को रुपए । मैं चुप लगा गया । किन्तु 'मौन स्विकृतिस्य लक्षणम्' के अनुसार उन्होंने मेरी चुप्पी को स्वीकृति समझ लिया और अपनी संस्था को सूचित्त कर दिया । इसके बाद उन्होंने बजाहिर तो रचनाओं के लिए ( तथा बेज़ाहिर रुपयों के लिए ) तकादा शुरू क्र दिया । 'ग़ज़ल' क्या चीज होती है यह न तो मैं तब जानता था और न ही अब जानता हूँ । लेकिन 'छपास' की प्यास ने मुझसे - 'खबर हो गई',  'नजर हो गई',  ' सहर हो गई' ,  'बसर हो गई' नुमा दस पंक्तियों की ग़ज़ल (?) लिखवा ही लो । पैसे न तो उन्होंने खुलकर माँगे और न मैं दे पाया । बहरहाल, वह संग्रह 'नुपुर के स्वर' के नाम से प्रकाशित हुआ । मुझे उसकी एक प्रति कृपापूर्वक मिल गई । इस तरह आपका यह मित्र 'ग़ज़ल' भी आखिर हो ही गया ! (शेष अगली बार)......     ....... ओम गिल.

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