शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

मैं साहित्यकार नही हूँ ! (3)

पिछली बार मेरे द्वारा निवेदन किया गया था कि, किस तरह संयोगवश ही मुझसे एक कहानी नुमा कोई बात लिखा गई थी, और  कसबे के अखबार पढने वाले मित्रो में इसकी तारीफ़ भी हुई थी ।मित्रों और अन्य मिलने वाले महानुभावों द्वारा लगातार आग्रह किया जा रहा था कि, और कुछ नया लिखूँ ।

मगर मैं अपनी स्थिति से खूब परिचित था । मुझे अपने लेखक होने का जरा सा भी म्गालता नहीं था । किन्तु लोगों में अपनी थोड़ी सी पहचान ( लेखक की - फिर चाहे वह झूठी और संयोगवश ही क्यों न बनी हो ) बन जाने के कारण , मन ही मन बड़ा गदगद था । उनके आग्रह और अपनी पहचान बनाए रखने के लिए मुझे सतत रूप से कुछ न कुछ बेहतर लिखते रहना चाहिए । पर सवाल अपनी जगह पर स्थिर था कि, आखिर क्या और कैसे लिखूं ? घर के और स्कूल के सारे कामों को तिलांजलि देकर, घंटों टेबल पर बैठकर सोचा करता कि क्या लिखूँ ? कभी मन करता कि कविता लिखूँ ...कविता छोटी होती है, और जल्दी लिखा जाती है ... मगर दो-पंक्तियाँ लिखने के बाद, मस्तिष्क में सन्नाटा छा जाता ! एकदम शून्य ... आगे कुछ लिखने में असफल रहकर वे कागज़ ही फाड़ देता ! फिर सोचता ... कविता अपने बस की बात नहीं है...छोड़ो इसे ... फिर कहानी के बारे में विचार करता ... पर हमेशा उपसंहार में उलझ जाता ... कहानी भी मन की मन में रह जाती ।
! कुछ न बनते देखकर , खीज उत्पन्न होती, और सारा गुस्सा घर वालों पर निकलता ! 

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