बुधवार, 16 अप्रैल 2014

मैं साहित्यकार नहीं हूँ !

जी हाँ, मित्रो ! मैं साहित्यकार होना तो बहुत दूर, एक सामान्य पाठक की समझ भी नहीं रखता हूँ ! भुत से ख्यात लेखक ' विनम्रतावश ' ऐसा लिखते हैं, यह उनका बड़प्पन है किन्तु मेरे मामले में ऐसा बिलकुल भी नहीं है ।मुझे लिखना नहीं आता ।कई बार एक चार पंक्तियों के पत्र या आवेदन पत्र लिखने में काफी सारा समय और कागज़ बर्बाद कर देने पर भी कुछ ढंग से नहीं लिखा जाता है ।बीच-बीच में - 'मेरा मतलब है' या 'यानि' जैसे अतिरिक्त शब्दों की सहायता से अपना मन्तव्य स्पष्ट करने की कोशिश करता हूँ ।

फिर आप कहेंगे कि भाई जब तुम्हें लखना ही नहीं आता है, तो क्या किसी डाक्टर की सलाह से ब्लॉग पोस्ट कर रहे हो । आपका कहना बिलकुल ही उचित है । फिर यहाँ ब्लॉग पर क्यों हूँ मैं ?

दरअसल, ग़लती इसमें मेरी ही है ! हुआ यूं कि जब मैं सातवीं कक्षा में था तब मेरे मुहल्ले के एक सट्टेबाज़ पंडित जी से मेरी कुछ अनबन हो गई ।सो चिढ़कर, बदला लेने के लिए मैंने उनके सम्मान में एक हास्य-व्यंग्य से भरी आठ-दस पंक्तियों की एक तुकबन्दी लिख डाली, और उसे स्थानीय समाचार-पत्र में प्रकाशनार्थ भेज दी ।

दुसरे दिन, घर के बाहर मचे क़ुहराम ने मुझे नींद से जगाया । तमाशा देखने की ग़रज से बाहर घर से बाहर निकला तो खुद तमाशा बन गया ! बाहर पंडित जी दुर्वासा बने क्रोध से जोर जोर से मेरी सात अगली और सात ही पिछली पीढियों के अनंत काल तक नरक-निवास की योजना बना रहे थे ।शोरगुल सुनकर  पिताजी भी बाहर आ गए थे ।उन्होंने बड़ी शांति से मुस्कराते हुए पंडित जी का हाथ पकड़ा, और धीरे से बोले -" पंडित जी ! लड्डू-बाफले खाए अर्सा हो गया है, मैं आपके पास ही आ रहा था , अच्छा हुआ आपके दर्शन घर बैठे हो गए । हाँ, तो जरा बता दीजिए कि दाल में क्या क्या मसाला पड़ेगा ?"

सुनते ही पंडित जी पर सवार 'दुर्वासा जी' का भूत उतर गया । पंडित जी एकदम खुश हो गए । बोले -" मसालों का क्या है ? हाथ-हाथ की करामात होती है ।मैं ऐसी दाल बनाता हूँ कि लोग दाल के साथ अपनी अंगुलियाँ भी चट कर जाएँ । और बाफले ! बाफले तो ऐसे बनाता हूँ जैसे मक्खन के बने हों !! आस-पास के सौ गाँवों में भी कोई मेरे जैसी रसोई बना दे तो मैं, उसका गुलाम बन जाऊँ !!! वो पिछले साल नन्दू के छोरे के जडूल्ये में ...."

"अरे हाँ, पंडित जी ! मुझे मालुम है ... आप ही बनाइएगा ... मैं सामग्री लाता हूँ ...कह कर पिताजी घर में चले गए । सारा मुहल्ला जानता था कि, पंडित जी कितना भी गुस्सा हों, लड्डू और दाल- बाफले की जरा सी आंच से 'मक्खन' जैसे पिघल जाते हैं ।

इसके बाद तो सारे क़स्बे में उस 'कविता' की चर्चा रही कई दिनों तक । और आपका यह अकिंचन मित्र रातों-रात कवि के रूप में ,सारे कस्बे में पहचाने जाने लगा । लेकिन, उसके बाद घंटों पेन हाथ में पकड़ बैठने के बाद कभी दो पंक्तियाँ भी ढंग की नहीं सूझीं !!

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